Tuesday 16 February 2016

पत्रकारिता में आपका स्वागत है !

पत्रकारिता’ समाज का एक ऐसा दर्पण है जिसमें समाज में घटित समस्त घटनाओं को देखा जा सकता है। यदि यह दर्पण धुमिल हो जाय या धुमिल होने की स्थिति में हो तो इसे सरंक्षित करने या साफ रखने की जिम्मेदारी केवल इससे जुड़े लोगों की ही नहीं है, अपितु समाज के बुद्धीजीवी वर्ग और चिन्तनशील लोगों की भी है। आज यह समतल (समान परिदृश्य वाला) दर्पण इतना धुमिल हो चुका है कि समाज में हकीकत में हो कुछ और रहा है और इसमें दिख कुछ और रहा है। यह उतल-अवतल दर्पण में परिवर्तित हो चुका है। यह इससे जुड़े तथाकथित लोगों के अनुरूप छोटी चीज को बड़ी तथा बड़ी चीज को छोटी दिखा रहा है।
            समसामयिक घटना-चक्र का शीघ्रता में लिखा गया इतिहास को ‘पत्रकारिता’ कहा जाता है। समाचारों के संकलन और उनके मात्र प्रस्तुतीकरण के प्रारम्भिक स्तर से लेकर आज तक पत्रकारिता के स्वरूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। हेरम्ब मिश्र लिखते हैं कि ‘‘समाचार पत्र का जन्म अगर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुआ था, तो पत्रकारिता का जन्म वस्तुतः सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में माना जाएगा,जबकि इसे एक कला की संज्ञा मिली और इसका अपना एक आदर्श निर्धारित हुआ। अन्यत्र वे लिखते हैं- ‘‘पत्रों के मान-वृद्धि के साथ ही पत्र से पत्रकारिता का जन्म एक कला और विज्ञान के रूप में हुआ। यहीं पत्रकारिता के उस आदर्श और दायित्व की नींव पड़ी जिसने पत्र और पत्रकारिता को ‘चतुर्थ सत्ता’ का आसन प्रदान किया।
            पत्रकारिता के श्रीगणेश का मूल कारण मानव की जिज्ञासा वृत्ति रही है। मनुष्य न सिर्फ अपने आस-पास के परिवेश से परिचित होना चाहता है वरन् दुनिया के दूसरे क्षेत्रों में क्या घटित हो रहा है- यह भी जानना चाहता है। समस्त संसार के दैनन्दिन घटनाक्रम से मनुष्य को यथाशीघ्र परिचित कराने के प्रयासों की होड़ में पत्रकारिता अपने विविध रूपों में विकसित होने लगी। आज पत्रकारिता में दैनिक पत्रों से लेकर साप्ताहिक, पाक्षिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक, वार्षिक आदि सभी पत्रिकाएं तथा रेडियो, दूरदर्शन, इटंरनेट,  ईमेल आदि, जनसंचार के विभिन्न विधाएं अस्तित्व में हैं। ‘ज्ञान और विचारों को शब्दों तथा चित्रों के रूप में दूसरे तक पहुंचाना ही पत्रकारिता है।       
              पत्रकारिता के लिए अंग्रेंजी में ‘जर्नलिज्म’ शब्द उपयोग होता है जो ‘जर्नल’ से निकला है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘दैनिक’ है। दिन-प्रतिदिन के क्रिया-कलापों, सरकारी बैठकों का विवरण ‘जर्नल’ में रहता था। 17वीं एवं 18वीं शदी में पीरियाडिकल के स्थान पर लैटिन शब्द ‘डियूनरल’ और ‘जर्नल’ शब्दों के प्रयोग हुए। 20वीं सदीं में गम्भीर समालोचना और विद्वत्तापूर्ण प्रकाशन को इसके अन्तर्गत माना गया। ‘जर्नल’ से बना ‘जर्नलिज्म अपेक्षाकृत व्यापक शब्द है। समाचार पत्रों एवं विविधकालिक पत्रिकाओं के सम्पादन एवं लेखन और तत्सम्बन्धी कार्यों को पत्रकारिता के अन्तर्गत रखा गया। इस प्रकार समाचारों का संकलन-प्रसारण,विज्ञापन की कला एवं पत्र का व्यावसायिक संगठन पत्रकारिता है। समसामयिक गतिविधियों के संचार से सम्बद्ध सभी साधन चाहे वे रेडियो हो या टेलीविजन इसी के अन्तर्गत समाहित हैं।
            जहां पत्रकारिता की उत्पत्ति सवांद कायम करने व इच्छा व भावनाओं के आदान-प्रदान के लिए मानी जाती है,वहीं पत्रकारिता की उत्पत्ति समाज में जनचेतना और मनचेतना के लिए मानी जाती है। परिभाषिक रूप से पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सूचना देना, शिक्षित करना तथा मनोरंजन करना है। इन तीन उद्देश्यों में सम्पूर्ण पत्रकारिता का सार तत्व समाहित किया जा सकता है। अपनी बहुमुखी प्रवृतियों के कारण पत्रकारिता व्यक्ति और समाज के जीवन को गहराई तक प्रभावित करती है। पत्रकारिता देश व समाज की जनता की चित्तवृत्तियों,अनुभूतियों और आत्मा से साक्षात्कार करती हुई मानव मात्र को ‘जीने की कला’ सिखाती है। सत्य की खोज में रत रहते हुए समाज में उदात्त मूल्यों की स्थापना की दिशा में पत्रकारिता की भूमिका विशेष उल्लेखनीय है। इसका मूल लक्ष्य ही अन्याय को समाज के सामने रखना,असहाय और पीड़ितों की रक्षा एवं सहयोग तथा जनता का पथ प्रदर्शन करना है। पत्रकारिता सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक चेतना की अग्रदूत बनकर जनकल्याण और विश्व बन्धुत्व एवं भ्रातृत्व की भावना को विकसित करने का सशक्त माध्यम है।
            यदि हम भारतीय पत्रकारिता के इतिहास पर एक नजर डाले तो इससे प्रतीत होता है कि भारतीय पत्रकारिता का उद्भव व विकास सामाजिक चेतना व राष्ट्रभक्ति को लेकर हुयी जो बाद में स्वराज्य को लेकर मुखर हुयी और समाज में स्वाधीनता को लेकर इसने जनचेतना जगाने के साथ-साथ हमे अपने अधिकार पाने का भी रास्ता दिखाया। धीरे-धीरे इसने अंग्रेज सरकार के खिलाफ भारतीय समाज में क्रांति लाने का भी काम किया।
            राजाराममोहन राय भारतीय परम्परा के एक महान समाजसुधारक थे जिन्होंने समाज सेवा व सामाजिक चिन्तन को लेकर ही पत्रकारिता शुरू की। मोहन राय ने 1821 में बंगला साप्ताहिक ‘संवाद कौमुदी’ का प्रकाशन किया। इस पत्र के माध्यम से उन्होनें सती प्रथा का तीव्र विरोध किया। इसके साथ ही 12 अप्रैल, सन् 1822 को राजाराममोहन राय ने ‘मिरातुल अखबार’ नाम से फारसी पत्र प्रारम्भ कर अपने विचारों को व्यापकता प्रदान की। पक्षपात रहित होकर औचित्य का समर्थन करने और यथार्थ स्थिति का सहज प्रकाशन करने के लिए 10 मई, सन् 1829 को नीलरतन हालदार के सम्पादकत्व में बंगला, फारसी और हिन्दी भाषा में ‘बंगदूत’ पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। 
            पण्डित युगल किशोर शुक्ल द्वारा 30 मई 1826 को ’उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन शुरू किया गया। यह पत्र हिन्दी पत्रकारिता की विकास यात्रा का महत्वपूर्ण बिन्दु था। हालांकि 4 दिसम्बर, सन् 1927 को पत्र प्रकाशन बन्द हो गया था, किन्तु जो दीप शिखा ’उदन्त मार्तण्ड’ ने प्रज्वलित की वह प्रतिदिन प्रदीप्त होती रही तथा उसके प्रकाश में हमने स्वाधीन भारत का स्वप्न साकार किया। ’उदन्त’ का अर्थ समाचार है और मार्तण्ड का अर्थ सूर्य है। सूर्य की किरणों की भांति। ’उदन्त मार्तण्ड’ ने अपने विचारों को आम जनता में फैलाया तथा क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करने में सहयोग दिया।
            भारतीय पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता के विकास की कहानी है। दोनों की विकास भूमियां एक-दूसरे की सहायक रही हैं। यदि पत्रकारिता को राष्ट्रीयता ने प्रज्वलित किया तो पत्रकारिता ने भी राष्ट्रीयता को उज्वलित कर राष्ट्रीयता के विकास की अनुकूल भूमि तैयार की।
          भारतीय पत्रकारिता का उदय राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्टभूमि में सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने के लिए ही हुआ। व्यावसायिक उद्देश्यों से दूर त्याग, तपस्या और बलिदान की भावना इसमें मुख्य थी। संस्कृति पर छाए कुहासे को दूर कर भारतीय पत्रकारिता ने दिशा हीन समाज को दिशा निर्देशित किया तथा अतीत के गौरव से परिचित कराया। देश की चेतना को झंकृत करके निराशा हृदयों में आशा का संचार करने तथा जड़ और मृतप्रायः भावनाओं में क्रान्ति अंकुरित करने में पत्रकारिता का विशिष्ट योगदान रहा है। ‘पयामे आजादी’ इसका एक मुख्य उदाहरण है। अपने नाम के अनुरूप ही यह पत्र आजादी का संदेश लेकर आया। स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेता अजीमुल्ला खां ने 8 फरवरी, सन् 1857 को दिल्ली से ’पयामे आजादी’ का प्रकाशन शुरू किया था।
           स्वतन्त्रता का शंखनाद करने वाले इस पत्र ने तत्कालीन स्थितियों पर खुलकर लिखा तथा सरकार की नीतियों की निर्भीक आलोचना की। 8 अप्रैल, सन् 1857 की युवा क्रान्तिकारी मंगल पाण्डे को फांसी लगा दी गई। फलस्वरूप सशक्त जन आन्दोलन ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध उठ खड़ा हुआ। अंग्रेजों से टक्कर लेने जगह-जगह सैनिकों की तथा आजादी के दीवानों की टोलियां निकल पड़ी। सिर पर कफन बांधे निर्भीकता के साथ लोग स्वतन्त्रता यज्ञ में अपनी आहुति देने को तत्पर थे।
           भारतेन्दु के समय देश में नवीन राजनैतिक-सामाजिक चेतना का उदय होना प्रारम्भ हो गया था। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित समाचारों तथा लेखों पर जन-सामान्य अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगा तथा उनमें व्यक्त विचारों से उद्वेलित भी होने लगा। ब्रह्म समाज, प्रार्थना सभा, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी जैसे समाज सुधारक संगठनों के सुधारवादी आन्दोलनों ने जनमानस के चिन्तन को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया और यह प्रभाव तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी उभर कर सामने आया। जातीय उन्नयन के प्रति प्रभाव तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी उभर कर सामने आया। जातीय उन्नयन के प्रति समर्पित इन पत्र-पत्रिकाओं में जो सामाजिक-राजनैतिक प्रतिबद्धता दिखाई देती हैं उसके मूल में भारतेन्दु की ही अद्भुत प्रेरणा शक्ति कार्य कर रही थी। इस युग के लेखक में उत्साह था, जिन्दादिली थी और थी साहित्य साधना की उत्कृष्ट ललक।
            गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर महात्मा गांधी, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, पण्डित मदनमोहन मालवीय, लाला हरदयाल, चन्द्र शेखर आजाद, सरदार भगत सिंह जैसे देश भक्तों ने पत्रकारिता का सदुपयोग स्वाधीनता के लिए किया। यह स्मरणीय है और रहेगा।
             पत्रकारिता क्या है और पत्रकारिता की उत्पत्ति किन उद्देश्यों को लेकर हुई इसका विस्तृत अध्ययन इस लेख में मेरे द्वारा किया गया है। लेकिन वर्तमान में पत्रकारिता -
                        अपने उद्देश्य से भटक गई है,
                        केवल स्वार्थ पर अटक गई है।
                        मूलरूप से चटक गई है,
                        भ्रस्टाचार रूपी नागिन इसे गटक गई है।।
             जहां पत्रकारिता का जन्म जनचेतना-मनचेतना को लेकर हुयी थी वहीं आज पत्रकारिता का उद्देश्य मात्र धनचेतना ही रह गया है। लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ को दीमक लग रहा है। लोकतंत्र रूपी छत चार स्तम्भों पर टिकी है जिसमें से एक स्तम्भ पत्रकारिता भी है। पत्रकारिता इस छत का ऐसा स्तम्भ है जो चौथे स्तम्भ के रूप में छत को राके रखता है, साथ ही इस छत के अन्य तीन स्तम्भों न्यायपालिका, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका को भी सहारा देता है। यह इन तीनों स्तम्भों के बीच सामंजस्य या संतुलन बनाये रखता है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि पत्रकारिता लोकतंत्र का एक ऐसा सशक्‍त माध्यम है जो लोकतंत्र की हिफाजत तो करता ही साथ ही न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के बीच सामंजस्य व संवाद बनाये रखता है। लोकतंत्र के जिस स्तम्भ पर इतनी जिम्मेदारी हो यदि उस पर ही दीमक लगना शुरू हो जाय तो यह एक लोकतांत्रिक रूपी छत के ढहने का कारण बन सकता है।
          वर्तमान में पत्रकारिता को पीत एवं पेड पत्रकारिता नामक दो वाइरसों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है जो पत्रकारिता के स्वास्थ्य के लिए चिन्ता का विषय बन गये हैं। आज पैसा देकर अपनी इच्छानुसार समाचार छपवाना व समाचार प्रसारित करना एक आम बात हो गई है। यदि एक पत्रकार चाहे तो एक छोटी सी झूटी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर तथा एक बड़ी वास्तविक और सत्य घटना को छोटे स्तर पर प्रकाशित व प्रसारित कर सकता है। आज जब हम एक आम आदमी की जुवां से यह सुनते हैं कि पत्रकारिता बिक चुकी है तो बहुत दुःख होता है। दुःख इसलिए होता है कि जिस चीज की उत्पत्ति या निर्माण किसी के हित के लिए हुआ था, आज वही अहित में अधिक उपयोग हो रही है। आज अवश्यकता है, इस चौथे स्तम्भ को इन वाइरस से बचाने के लिए एण्टीवाइरस तैयार करने की। इसकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की।

No comments:

Post a Comment